हे महारथी !
हे कलाकार! हे महारथी! साष्टांग दंडवत करते हैं
हम तुमको टुच्चा सा पेन अपना, आज समर्पित करते हैं
अब तुम ही भाग्य-विधाता हो स्वीकार आज ये करते हैं
हम छोटे-मोटे प्राणी हैं जो बुद्धि-सदन में चरते हैं
तुम मुण्डी-तोड़क, मूंछ-मरोड़क, लाठी के निर्माता हो
रावण से ज्यादा हो प्रसिद्द, तुम ममा कंस के दादा हो
W. T. C. से ऊंचे हो तुम चीन बराबर चौड़े हो
दूजे का टिकट कटाने को मिल्खा सिंह जैसे दौड़े हो
जब टिकट बचाना हो अपना तो हास्य कवि बन जाते हो
चेहरे को टेढ़ा करते हो क्या अज़ब रंग दिखलाते हो
वानर समान खिखियाते हो, कूकुर समान घिघियाते हो
बकरी समान मिमियाते हो, शूकर समान छिछियाते हो
तुम बने विदूषक टिकट-समिति के इर्द-गिर्द मंडराते हो
इस पल में खीस निपोरे हो, उस पल स्वर को भर्राते हो
तुम लुढ़कू- पुढ़कू,ठुनक- ठुनक कर रोते हो चिल्लाते हो
ये रीढ़ चीज़ क्या होती है, तुम पूर्ण गोल हो जाते हो
तुम पल-पल रंग बदलने में गिरगिट के पुरखे बन जाओ
चांदी के जूते चाट-चाट कर चलते पुर्जे बन जाओ
मुमताज महल को घिरवा दो, फिर ताजमहल को गिरवा दो
गन्ना चीनी सब हडपो, कोल्हू में किसान को पिरवा दो
तुमसे थोड़ी सी रार ठने अपहरण हमारा करवा दो
भूसा किसान का चुरवा के तुम खाल हमारी भरवा दो
तुमसे थोड़ा सा प्यार बढे तो डाका घर में डलवा दो
मीठी मीठी बोलो,दंगे में छप्पर-छानी जलवा दो
जो करे नमस्ते तुम्हे, उसी के घर में तम्बू गड़वा दो
गाँजे में उसे पकड़वा दो, बत्तीसी पूरी झडवा दो
भाई से भाई लड़वा दो,थाने में दोनों सड़वा दो
जिससे मिल जाए मसर्रत तुम मर्सरत उसी की करवा दो
चुल्लू पानी में डूबो तो पानी भी हमसे भरवा लो
जो वोट मिले मरने पर तो खुद को भी हमसे मरवा लो
हम डाल-डाल तुम पात-पात, हम गूलर हैं तुम बन्दर हो
हम दान, पात्र तुम, हम खेती, तुम मार्च माह के इन्दर हो
तुम सबको टेंशन में डालो, बेफिक्री से महरूम करो
जो प्यादे से फर्जी होवे, उसको पल में मरहूम करो
पर जनता मूर्ख नहीं है चालाकी में तुम्हरी नानी है
यह वोट तभी देती है जब पी जाती रंगीं पानी है
जब गरम पाउच अन्दर जाये तो वोट तुम्हीं को दे आये
आलू-पूरी खाकर नित ही मूंछों- मूंछों में मुस्काए
जब पैकिट गरम गुंड-स्वामी की ग्रीवा को तर करता है
उद्योग अपहरण चालू कर कोठी को धन से भरता है
वह फ्लैट-प्लाट को कब्ज़ा कर कुछ रखता है कुछ देता है
इस तरह गरीबी का अपना कुछ हिस्सा कम कर लेता है
उसके भी कुछ उप- गुंडे हैं जो पक्के दर्जी होते हैं
वो जेब काटते बाज़ारों में, हिस्सा तुमको देते हैं
वैसे ये भी जनसेवा है जो ड्यूटी जनसेवक की है
रोटी-पानी-कपड़ा-मकान देता तो धन-लेवक ही है
भूखे को पूड़ी देते हो,प्यासे को बोतल देते हो
देकर दरिद्र को हरे नोट, क्या जुर्म वोट जो लेते हो
कुछ स्वस्थ, किन्तु बेरोजगार, भी रोज़गार पा जाते हैं
जो छीन-झपट कर पाते है, तुमसे मिलकर खा जाते हैं
जनता भी अब वो नहीं रही, यह नई सदी की जनता है
इस लूटपाट के बिजनेस में उसका भी कुछ हक बनता है
कुछ ताड़ू टाइप के अंकल पूरा माहौल ताड़ते हैं
जो हाथ जोड़कर आता है, उसपर वो रौब झाड़ते हैं
तो हाथ जोड़ने वाले भी पूरे ही कौवे होते हैं
सुनते हैं, दांत दिखाते हैं,फिर बीज वोट का बोते हैं
है बुद्धिमान जनता इतनी, वादे सबसे कर देती है
शेषन साहब को छोड़ वोट भैया राजा को देती है
अब यह भेड़ों का झुण्ड नहीं,यह झुण्ड सियारों जैसा है
ये श्वान-भोज के लिए लपकते कूकुर-यारों जैसा है
हा- हा, ही- ही, के बीच धौल-धुप्पल में बातें होती हैं
बातों में शह, शह में मातें, मातों में लातें होती हैं
कोटा, ठेके, रिश्वत, नजराने, शुकराने तय होते हैं
जिनकी बातें ना तय हों वो गाली देते हैं रोते हैं
किस दिन दंगे करवाने हैं, किनमे, कैसे करवाने हैं
ये लो तम्बू सी बोरी, जिसमे नोट तुम्हे भरवाने हैं
प्रतिपक्षी हरवाने हैं, उसके लोग तुम्हें मरवाने हैं
सब पहले तै कर लो तुम, आखिर वोट तुम्हे गिरवाने हैं
जिससे तुम थोड़े चिढ़ जाओ उससे ही चिकना बोले हो
अपनी बातों की सूगर उस पूअर के ब्लड में घोले हो
धीरे-धीरे आकार बढ़ा, पाषाण-खंड बन जाते हो
फिर चुपके-चुपके उसकी किडनी में प्रविष्ट हो जाते हो
तुम बहुत बड़े वैज्ञानिक हो, किडनी आखिर क्या करनी है
जैसे भारत ने रक्खी है, वैसे ड्रैगन को रखनी है
जब पी.एम., सी. एम. सो सकते हैं तो तुम भी सो सकते हो
कल को पी.एम. को लात मार तुम खुद पी.एम. हो सकते हो
जब छोटे-मोटे दलबदलू झट इतना कुछ पा सकते हैं
तो पी. एम्. बनकर आप महोदय कितना कुछ खा सकते हैं
तुम छोटा काम कभी सोचो, वो बड़ा काम हो जाता है
जो पीक थूक दो पब्लिक पर, होली का रंग बन जाता है
मच्छरदानी घर में तानो तो इन्टरनेट हो जाता है
मंत्री के कुत्ते को चूमो तो मंत्री सेट हो जाता है
तुम लघुशंका करते हो, शंका दीर्घ तुरत हो जाती है
जिस प्रोपर्टी पर कर्जा दो वो शीघ्र कुरक हो जाती है
तुम जिसको कर दो 'हाय', जिंदगी वही नर्क हो जाती है
कर दो गलती से 'बाय', आत्मा स्वर्ग-धाम को जाती है
हम लिख सकते हैं महाकाव्य, वह भी छोटा पड़ जाएगा
चाणक्य-नीति का सूत्र-वाक्य भी सूली पर चढ़ जायेगा
अब जड़ में दही डालने का ज़ुमला भू में गड़ जाएगा
इतनी गहरी हैं जड़ें आपकी, दही स्वयं सड़ जाएगा
हम हैं आराधक, पैमाने,औ आप ईश हैं, मानक हैं
तो हम मापे ही जाते हैं, हम अक्षर, आप कथानक हैं
व्यक्तित्व आपका बहुत बड़ा, फिर तोंद फुलाए जाते हैं
हम माप-तौल में फेल हुए, अब शीश झुकाए जाते हैं.
कवि:मुकेश गुप्त 'मुक्त'
हे कलाकार! हे महारथी! साष्टांग दंडवत करते हैं
हम तुमको टुच्चा सा पेन अपना, आज समर्पित करते हैं
अब तुम ही भाग्य-विधाता हो स्वीकार आज ये करते हैं
हम छोटे-मोटे प्राणी हैं जो बुद्धि-सदन में चरते हैं
तुम मुण्डी-तोड़क, मूंछ-मरोड़क, लाठी के निर्माता हो
रावण से ज्यादा हो प्रसिद्द, तुम ममा कंस के दादा हो
W. T. C. से ऊंचे हो तुम चीन बराबर चौड़े हो
दूजे का टिकट कटाने को मिल्खा सिंह जैसे दौड़े हो
जब टिकट बचाना हो अपना तो हास्य कवि बन जाते हो
चेहरे को टेढ़ा करते हो क्या अज़ब रंग दिखलाते हो
वानर समान खिखियाते हो, कूकुर समान घिघियाते हो
बकरी समान मिमियाते हो, शूकर समान छिछियाते हो
तुम बने विदूषक टिकट-समिति के इर्द-गिर्द मंडराते हो
इस पल में खीस निपोरे हो, उस पल स्वर को भर्राते हो
तुम लुढ़कू- पुढ़कू,ठुनक- ठुनक कर रोते हो चिल्लाते हो
ये रीढ़ चीज़ क्या होती है, तुम पूर्ण गोल हो जाते हो
तुम पल-पल रंग बदलने में गिरगिट के पुरखे बन जाओ
चांदी के जूते चाट-चाट कर चलते पुर्जे बन जाओ
मुमताज महल को घिरवा दो, फिर ताजमहल को गिरवा दो
गन्ना चीनी सब हडपो, कोल्हू में किसान को पिरवा दो
तुमसे थोड़ी सी रार ठने अपहरण हमारा करवा दो
भूसा किसान का चुरवा के तुम खाल हमारी भरवा दो
तुमसे थोड़ा सा प्यार बढे तो डाका घर में डलवा दो
मीठी मीठी बोलो,दंगे में छप्पर-छानी जलवा दो
जो करे नमस्ते तुम्हे, उसी के घर में तम्बू गड़वा दो
गाँजे में उसे पकड़वा दो, बत्तीसी पूरी झडवा दो
भाई से भाई लड़वा दो,थाने में दोनों सड़वा दो
जिससे मिल जाए मसर्रत तुम मर्सरत उसी की करवा दो
चुल्लू पानी में डूबो तो पानी भी हमसे भरवा लो
जो वोट मिले मरने पर तो खुद को भी हमसे मरवा लो
हम डाल-डाल तुम पात-पात, हम गूलर हैं तुम बन्दर हो
हम दान, पात्र तुम, हम खेती, तुम मार्च माह के इन्दर हो
तुम सबको टेंशन में डालो, बेफिक्री से महरूम करो
जो प्यादे से फर्जी होवे, उसको पल में मरहूम करो
पर जनता मूर्ख नहीं है चालाकी में तुम्हरी नानी है
यह वोट तभी देती है जब पी जाती रंगीं पानी है
जब गरम पाउच अन्दर जाये तो वोट तुम्हीं को दे आये
आलू-पूरी खाकर नित ही मूंछों- मूंछों में मुस्काए
जब पैकिट गरम गुंड-स्वामी की ग्रीवा को तर करता है
उद्योग अपहरण चालू कर कोठी को धन से भरता है
वह फ्लैट-प्लाट को कब्ज़ा कर कुछ रखता है कुछ देता है
इस तरह गरीबी का अपना कुछ हिस्सा कम कर लेता है
उसके भी कुछ उप- गुंडे हैं जो पक्के दर्जी होते हैं
वो जेब काटते बाज़ारों में, हिस्सा तुमको देते हैं
वैसे ये भी जनसेवा है जो ड्यूटी जनसेवक की है
रोटी-पानी-कपड़ा-मकान देता तो धन-लेवक ही है
भूखे को पूड़ी देते हो,प्यासे को बोतल देते हो
देकर दरिद्र को हरे नोट, क्या जुर्म वोट जो लेते हो
कुछ स्वस्थ, किन्तु बेरोजगार, भी रोज़गार पा जाते हैं
जो छीन-झपट कर पाते है, तुमसे मिलकर खा जाते हैं
जनता भी अब वो नहीं रही, यह नई सदी की जनता है
इस लूटपाट के बिजनेस में उसका भी कुछ हक बनता है
कुछ ताड़ू टाइप के अंकल पूरा माहौल ताड़ते हैं
जो हाथ जोड़कर आता है, उसपर वो रौब झाड़ते हैं
तो हाथ जोड़ने वाले भी पूरे ही कौवे होते हैं
सुनते हैं, दांत दिखाते हैं,फिर बीज वोट का बोते हैं
है बुद्धिमान जनता इतनी, वादे सबसे कर देती है
शेषन साहब को छोड़ वोट भैया राजा को देती है
अब यह भेड़ों का झुण्ड नहीं,यह झुण्ड सियारों जैसा है
ये श्वान-भोज के लिए लपकते कूकुर-यारों जैसा है
हा- हा, ही- ही, के बीच धौल-धुप्पल में बातें होती हैं
बातों में शह, शह में मातें, मातों में लातें होती हैं
कोटा, ठेके, रिश्वत, नजराने, शुकराने तय होते हैं
जिनकी बातें ना तय हों वो गाली देते हैं रोते हैं
किस दिन दंगे करवाने हैं, किनमे, कैसे करवाने हैं
ये लो तम्बू सी बोरी, जिसमे नोट तुम्हे भरवाने हैं
प्रतिपक्षी हरवाने हैं, उसके लोग तुम्हें मरवाने हैं
सब पहले तै कर लो तुम, आखिर वोट तुम्हे गिरवाने हैं
जिससे तुम थोड़े चिढ़ जाओ उससे ही चिकना बोले हो
अपनी बातों की सूगर उस पूअर के ब्लड में घोले हो
धीरे-धीरे आकार बढ़ा, पाषाण-खंड बन जाते हो
फिर चुपके-चुपके उसकी किडनी में प्रविष्ट हो जाते हो
तुम बहुत बड़े वैज्ञानिक हो, किडनी आखिर क्या करनी है
जैसे भारत ने रक्खी है, वैसे ड्रैगन को रखनी है
आधा दिमाग, आधा कंधा तो उसको दे ही डाला है
पूरब-उत्तर में शरणागत गिद्धों को तुमने पाला है
जब पी.एम., सी. एम. सो सकते हैं तो तुम भी सो सकते हो
कल को पी.एम. को लात मार तुम खुद पी.एम. हो सकते हो
जब छोटे-मोटे दलबदलू झट इतना कुछ पा सकते हैं
तो पी. एम्. बनकर आप महोदय कितना कुछ खा सकते हैं
तुम छोटा काम कभी सोचो, वो बड़ा काम हो जाता है
जो पीक थूक दो पब्लिक पर, होली का रंग बन जाता है
मच्छरदानी घर में तानो तो इन्टरनेट हो जाता है
मंत्री के कुत्ते को चूमो तो मंत्री सेट हो जाता है
तुम लघुशंका करते हो, शंका दीर्घ तुरत हो जाती है
जिस प्रोपर्टी पर कर्जा दो वो शीघ्र कुरक हो जाती है
तुम जिसको कर दो 'हाय', जिंदगी वही नर्क हो जाती है
कर दो गलती से 'बाय', आत्मा स्वर्ग-धाम को जाती है
हम लिख सकते हैं महाकाव्य, वह भी छोटा पड़ जाएगा
चाणक्य-नीति का सूत्र-वाक्य भी सूली पर चढ़ जायेगा
अब जड़ में दही डालने का ज़ुमला भू में गड़ जाएगा
इतनी गहरी हैं जड़ें आपकी, दही स्वयं सड़ जाएगा
हम हैं आराधक, पैमाने,औ आप ईश हैं, मानक हैं
तो हम मापे ही जाते हैं, हम अक्षर, आप कथानक हैं
व्यक्तित्व आपका बहुत बड़ा, फिर तोंद फुलाए जाते हैं
हम माप-तौल में फेल हुए, अब शीश झुकाए जाते हैं.
कवि:मुकेश गुप्त 'मुक्त'
सबसे पहले इतनी अच्छी कविता के लिये बधाई.. हास्य कविता नहीं कहूंगा.. व्यंग्य है, लेकिन क्या हम सबकी जिन्दगी ही एक व्यंग्य बनकर नहीं रह गयी. हम लोग अपने जीवन में उन चीजों को आत्मसात कर चुके हैं, जिनसे परहेज होना चाहिये. जो चीजें कभी लोगों को नफरत का पात्र बनाती थीं, आज वही चीजें सामाजिक श्रेष्ठता का पर्याय बनती जा रही हैं. कैसी तरक्की है ये हमारी संस्कृति की.
ReplyDeleteआपकी इस कविता को पढ़ते ही कुछ कौंधा, और उस कौंध से कुछ पंक्तियां खुद-ब-खुद प्रस्फुटित हो गयीं, जो आपके समक्ष हैं....
ReplyDeleteहम नर होकर भी मकोड़े से, तुम साक्षात नारायण हो
हम हो न सके चौपाई भी, तुम तो पूरी रामायण हो
हम हैं टुटही सी चप्पल से, तुम वूडलैण्ड के जूते हो
हम पर न पैसे चार जुड़ें, तुम दौलत सारी कूते हो
हम विधिविधान से चलते हैं, तुम हर विधान को चरते हो
हम गिरते हैं, गिर जाते हैं, तुम हर क्षण तरते रहते हो.
यह खेल कहां सीखा तुमने, कुछ हमको भी तो बतलाओ
यह नये पैंतरे, प्रति-घातें, कुछ हमको भी तो सिखलाओ
न है मेरा कुछ यहां प्रभो, सब तुझको अर्पित करते है
है पेन कौन सी चीज भला, की-बोर्ड समर्पित करते हैं.
thanks a lot mahoday. aapne char chand laga diye..
ReplyDeleteअब प्रस्फुटन वाकई तड़ित की तरह है, विचार आया तो कागज-कलम-टाइपराइटर-कीबोर्ड सामने होना चाहिये, अन्यथा प्रस्फुटन हुआ और उसे पकड़ा नहीं तो ये गया और वो गया. इन दस पंक्तियों के प्रस्फुटन की पूरी जिम्मेदारी आपकी कविता (स्त्रीलिंग वाली नहीं) की है. पहली लाइन से पढ़ना प्रारम्भ किया और फिर अन्त तक, एक बार, दोबारा और फिर तीसरी बार...
ReplyDeleteमेरी यह अदम्य इच्छा है कि आप अन्य कवितायें भी यहां प्रकाशित करें. मेरा परिचय आपसे कई वर्ष पूर्व हुआ लेकिन जाना कई वर्ष बाद हुआ, और शायद जान भी न पाता यदि गोरखपुर जाना न होता.. और अब जब जान ही गया हूं तो इस नाते कुछ चीजें तो आपको माननी ही पड़ेंगी अर्थात रचनायें प्रकाशित करने की प्रार्थना तो माननी ही पड़ेगी...
ReplyDeleteजाना के स्थान पर जानना पढ़ा जाये...
ReplyDeleteऔर असली आनन्द तब आयेगा जब अपनी आवाज में इसे पाडकास्ट करेंगे... उसका भी इन्तजार है...
ReplyDeleteजी अवश्य, शीघ्र ही प्रकाशित करूंगा. आपके द्वारा ज़ोरदार उत्साहवर्धन हेतु धन्यवाद
ReplyDelete