ईश्वरीय अन्याय
ब्रह्म भी वरदान में कुछ श्राप देता है भला
जन्म मानव का धरा पर सृष्टि की अनुपम कला
किन्तु यह वरदान भी हो अंतरित अभिशाप में
भाग्य को दे अग्नि, जीवन झोंकता संताप में
मै तुम्हें बस जानता हूँ कौन हो क्या नाम है
किन्तु क्या हो किस तरह हो ये नहीं मैं जानता
प्रश्न बहुधा उत्तरों की पा गए अवहेलना
गूढ़, अविचल, मौन हो कैसे तुम्हें पहचानता
क्या मनोहर गीत थे जो गूंजते अमराई में,
बालकों की फ़ौज नटखट घूमती तरुणाई में
स्वाद अद्भुत था रसालों का चखे चोरी छुपे
दंड पाते, भूल जाते, ज्यों घड़ा चिकनाई में
हाथ टूटें,पाँव छिल जाएं किसे परवाह थी
होलिका में पांच सौ उपले पड़ें यह चाह थी
तोड़ गन्ने मित्रगण खा गए पराए खेत के
आज बाबा ने इकन्नी दी,तबीयत शाह थी
किन्तु रुक कर काटता हूँ,मधुर स्वप्निल काल को
और करता हूँ शरों से स्वयं छलनी भाल को
आह,भीषण काल था आगे खड़ा,फुंफकारता
काश! ईश्वर ही समझ पाता समय की चाल को
जन्म से युवराज होने में भला क्या ख़ास था
स्वर्ण-आसन के पदों में दीमकों का वास था
किन्तु वह जो सत्व तुम में था, बहुत बेजोड़ था,
थे व्यथित, श्रम-क्लान्त तन,मुख पर सदा उल्लास था
रिक्त वह तूणीर था जिस पर तुम्हें विश्वास था
क्षीण योद्धा की,पराभव का कुटिल परिहास था
सर्प के विष-दन्त का आखेट बन कर रह गए,
क्या कराहोगे कभी या दंभ है पुरुषार्थ का
हाँ यही अनुनाद था कुछ कर्णप्रिय,कुछ ध्वंसकारी
गूंजती थी मौन की प्रतिध्वनि भयावह,चीत्कारी
शब्द थे नि:शब्द ,नीरवता भला क्यों हिंस्र थी
शून्य की परछाईं का शोणित बहा हंसती दुधारी
यह नियति की क्रूरता या व्यंग्य या षड्यंत्र था
इस भयानक रात्रि में द्युति लीलने का मन्त्र था
पंक का कर पान, रौरव नर्क तिल-तिल भूनता
हर्ष का हर क्षण विषादागार में परतन्त्र था
क्या युगों का दाह पल-पल,नित्य यूँ मिलना लिखा था
नीड़ धूं- धूं जल रहा था दैव को क्यों ना दिखा था
रेत जीवन की सरकती जा रही थी हाथ से
भाग्य- रोदन पी अमिय, दुर्योग के हाथों बिका था
कुछ परालौकिक, पराभासी, पराविज्ञान है
मुक्त है जो मृत्यु-जीवन से, परासंज्ञान है
भाग्य -लेखों की बही में , जो लिखा है ब्रह्म ने
सत्य अन्तिम है, उसी से जन्म या निर्वाण है
किन्तु दुश्चिन्ता यही है, जन्म था वह कौन सा
जब शुरू हुई यातना, धारण किया क्यों मौन सा
एक त्रासद जन्म, मानो मृत्यु का पर्याय हो
और कितनी बार जीवन, जल बहेगा मोम सा
मुकेश गुप्त
ब्रह्म भी वरदान में कुछ श्राप देता है भला
जन्म मानव का धरा पर सृष्टि की अनुपम कला
किन्तु यह वरदान भी हो अंतरित अभिशाप में
भाग्य को दे अग्नि, जीवन झोंकता संताप में
मै तुम्हें बस जानता हूँ कौन हो क्या नाम है
किन्तु क्या हो किस तरह हो ये नहीं मैं जानता
प्रश्न बहुधा उत्तरों की पा गए अवहेलना
गूढ़, अविचल, मौन हो कैसे तुम्हें पहचानता
क्या मनोहर गीत थे जो गूंजते अमराई में,
बालकों की फ़ौज नटखट घूमती तरुणाई में
स्वाद अद्भुत था रसालों का चखे चोरी छुपे
दंड पाते, भूल जाते, ज्यों घड़ा चिकनाई में
हाथ टूटें,पाँव छिल जाएं किसे परवाह थी
होलिका में पांच सौ उपले पड़ें यह चाह थी
तोड़ गन्ने मित्रगण खा गए पराए खेत के
आज बाबा ने इकन्नी दी,तबीयत शाह थी
किन्तु रुक कर काटता हूँ,मधुर स्वप्निल काल को
और करता हूँ शरों से स्वयं छलनी भाल को
आह,भीषण काल था आगे खड़ा,फुंफकारता
काश! ईश्वर ही समझ पाता समय की चाल को
जन्म से युवराज होने में भला क्या ख़ास था
स्वर्ण-आसन के पदों में दीमकों का वास था
किन्तु वह जो सत्व तुम में था, बहुत बेजोड़ था,
थे व्यथित, श्रम-क्लान्त तन,मुख पर सदा उल्लास था
रिक्त वह तूणीर था जिस पर तुम्हें विश्वास था
क्षीण योद्धा की,पराभव का कुटिल परिहास था
सर्प के विष-दन्त का आखेट बन कर रह गए,
क्या कराहोगे कभी या दंभ है पुरुषार्थ का
हाँ यही अनुनाद था कुछ कर्णप्रिय,कुछ ध्वंसकारी
गूंजती थी मौन की प्रतिध्वनि भयावह,चीत्कारी
शब्द थे नि:शब्द ,नीरवता भला क्यों हिंस्र थी
शून्य की परछाईं का शोणित बहा हंसती दुधारी
यह नियति की क्रूरता या व्यंग्य या षड्यंत्र था
इस भयानक रात्रि में द्युति लीलने का मन्त्र था
पंक का कर पान, रौरव नर्क तिल-तिल भूनता
हर्ष का हर क्षण विषादागार में परतन्त्र था
क्या युगों का दाह पल-पल,नित्य यूँ मिलना लिखा था
नीड़ धूं- धूं जल रहा था दैव को क्यों ना दिखा था
रेत जीवन की सरकती जा रही थी हाथ से
भाग्य- रोदन पी अमिय, दुर्योग के हाथों बिका था
कुछ परालौकिक, पराभासी, पराविज्ञान है
मुक्त है जो मृत्यु-जीवन से, परासंज्ञान है
भाग्य -लेखों की बही में , जो लिखा है ब्रह्म ने
सत्य अन्तिम है, उसी से जन्म या निर्वाण है
किन्तु दुश्चिन्ता यही है, जन्म था वह कौन सा
जब शुरू हुई यातना, धारण किया क्यों मौन सा
एक त्रासद जन्म, मानो मृत्यु का पर्याय हो
और कितनी बार जीवन, जल बहेगा मोम सा
मुकेश गुप्त